इस तरह मनाया जाता था दुनिया के अलग अलग हिस्सों में ईद मिलाद उन नबी


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आज 12 रबीअव्वल है; इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक़ हिजरी कैलेंडर के तीसरे महीने रबीअव्वल की 12वीं तारीख़, 571ईं. को इस्लाम के आख़री पैग़ंबर मुहम्मद ﷺ का जन्म हुआ था। इस दिन को अक़ीदतमंद मुसलमान ईद मिलाद उन नबी के तौर पर मनाते हैं। इस दिन मुसलमानो के घर पर तरह तरह के पकवान बनते है, ग़रीबों और मिसकीनों में तक़सीम किया जाता है। ईद मिलाद उन नबी के मौक़े पर लोग अपने घरों से निकलकर ख़ुशी का इज़हार करते हैं, और बड़ी तादाद में इकट्ठा होकर जुलूस निकालते हैं। जुलूस में बच्चे, बड़े और बुज़ुर्ग पैगंबर मुहम्मद ﷺ की तारीफ़ में पढ़ा जाने वाला कलाम पढ़ते हैं, जिसे नात कहते हैं। इस दिन मस्जिद, घरों, सड़कों को सजाया जाता है। अलग अलग जगह अलग अलग तरह से ईद मिलाद उन नबी का जश्न मनाया जाता है।

उस्मानी तुर्कों को जश्न ए मिलाद उन नबी का आयोजन करने का सबसे अधिक शर्फ़ हासिल है। उनके दौर ए हुकुमत में सीरिया, मिस्र, मक्का, मदीना में जश्न ए मिलाद उन नबी का बहुत शानदार ऐहतमाम होता था। उस्मानी तुर्क अपने शुरुआती दौर मे भी जब उन्होने हेजाज़ पर अपनी हुकुमत क़ायम नही की थी, तब भी वो जश्न ए मिलाद उन नबी का आयोजन मदीना में किया करते थे। उस्मान बिन उर्तुग़रल जिन्होने उस्मानी सलतनत की बुनियाद रखी थी, के बारे में पढ़ने को मिलता है के वो मिलाद उन नबी के मौक़े पर वो हरामैन में मिठाईंया बांटा करते थे। साथ ही ग़रीबों में पैसा और खाना तक़सीम किया जाता था। और इस दौरान अच्छे खाने का ऐहतेमाम किया जाता था। साथ ही सड़क और गलीयों को रौशन किया जाता था; सजावट की जाती थी। इस मौक़े पर नात-ख़्वानी का मस्जिद ए नबवी में ख़ुसूसी एहतेमाम किया जाता था। रसूलउल्लाह ﷺ की शान में क़सीदे पढ़े जाते थे। 1588 में पहली बार उस्मानी सलतनत के दौर में ईद मिलाद उन नबी का जश्न का प्रचलन एक त्यौहार के रूप में जन मानस में सर्वाधिल प्रचलित हुआ, क्युंके उस्मानी सुल्तान ने इस दिन को सरकारी छुट्टी का दिन घोषित कर दिया था। वैसे उससे पहले भी ईद मिलाद उन नबी का जश्न होता था; पर सलतनत के झंडे के नीचे होने के बाद ये आम हो गया; लोगों ने हांथो हांथ लिया।

अगर उस्मानी दस्तावेज़ पर नज़र डालें तो पता चलता है के अलग अलग दौर मे अलग तरीक़े से ईद मिलाद उन नबी का जश्न मनाया जाता था। बड़ी तादाद में क़ारी क़ुरान की क़िरअत करते थे। नातख़्वां हुज़ूर ﷺ की शान में नात पढ़ते थे; और उन्हे तोहफ़े में सामान दिया जाता है। इस मौक़े पर अवाम बड़े पैमाने पर सुल्तान को चंदे की शकल में पैसे देती थी; जिससे आईंदा के सालों में ईद मिलाद उन नबी के जशन का और अच्छा ऐहतेमाम किया जाता था। साथ ही कई एैसे ख़त मिलते हैं जिसमें अलग अलग प्रांत के गवर्नर अपने अवाम और सुल्तान को ईद मिलाद उन नबी के बधाई देते नज़र आते हैं! साथ ही कई जगह तोप चला कर जश्न मनाने की भी बात सामने आती है! इसके इलावा बड़े पैमाने पर फ़ौज के लोग ईद मिलाद उन नबी के जश्न में हिस्सा लेते हैं, प्रेड निकालते हैं। जिन्हे बज़ाब्ता बोनस के तौर पर आधे माह की तनख़्वाह दी जाती है! इसके अलावा और भी कई काम ईद मिलाद उन नबी के मौक़े पर अंजाम दिये जाते थे। कुछ इश्तेहार भी मिले हैं, जिसपर अलग अलग इलाक़े के मुफ़्ती अपने हिसाब से ईद मिलाद उन नबी का संदेश लिखवा कर बंटवाते थे। यहां तक के उस्मानी सलतनत के अंतिम समय में भी वहां के सुल्तान लगातार ईद मिलाद उन नबी के विभिन्न जश्न में हिस्सा लिया करते थे। उस्मानी सलतनत का हिस्सा रहा फ़लस्तीन और ख़ास कर क़ुद्द्स का इलाक़ा जहां पर मस्जिद ए अक़सा मौजूद है, वहां पर बड़े पैमाने पर मलेट्री बैंड का उपयोग ईद मिलाद उन नबी का जश्न मनाने के लिए किया जाता था। अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे फ़लस्तीन में आज भी ये ट्रेडिशन वहां क़ायम है।

अफ़्रीका से लेकर मलेशया इंडोनेशिया, फ़िलीपींस और चीन तक में वहां के ट्रेडिशन के हिसाब से लोग जश्न ए मीलाद उन नबी मनाया करते थे।

अगर हम हिन्दुस्तान की बात करें तो यहां भी मुग़लिया दौर में ईद मिलाद उन नबी का जश्न होता था; कुछ पुरानी पेंटिंग बताती हैं के किस तरह मुग़ल बादशाह अपने दरबार में जश्न ए मीलाद उन नबी का आयोजन किया करते थे। फ़ातेहाख़्वानी, नातख़्वानी होती थी और हुज़ूर ﷺ के शान में क़सीदे पढ़े जाते थे। ग़रीबों में दौलत और कपड़े बांटे जाते थे। मिठाईयां तक़सीम की जाती थी।

अफ़्रीका के डरबन और उसके आस पास के इलाक़ो में रह रहे भारतीय मुसलमान बड़े पैमाने पर ईद मिलाद उन नबी का आयोजन किया करते थे; जिसमें उस्मानी सलतनत का कोई नुमाईंदा मेहमान ए ख़ुसूसी हुआ करता था। हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी के अज़ीम रहनुमा मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली जब इंगलैंड में थे, तब उन्होने जशन ए मीलाद उन नबी में हिस्सा लिया था; जिसका आयोजन तुर्क लोगों ने किया था; यहां वो मेहमान ए ख़ुसूसी की हैसियत से बुलाय गए थे।

वहीं हिन्दुस्तान के स्कूल और कॉलेजों में भी ईद मिलाद उन नबी का जश्न मनाया जाता था। बुज़ुर्ग लोग बताते हैं के स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले मुस्लिम छात्र आपस में कांट्रोब्यूट कर स्कूल में ही इसका आयोजन किया करते थे। और इस आयोजन में साथ पढ़ने वाले हिन्दु भाई भी हिस्सा लिया करते थे। जहां इस मौक़े पर मिठाईयां तक़सीम की जाती थी; वहीं लोग नबी ए करीम मुहम्मद ﷺ की सीरत बयान करते थे। और ख़ास कर उन मुद्दों पर बात होती थी जिससे हम रोज़ हो गुज़रते है! हमारा ऐख़लाक़ कैसा होना चाहीये; हमारा किरदार कैसा होना चाहीये; वग़ैरा वग़ैरा। वैसे एक तहज़ीब के ख़्तम हो जाने के वजह कर इस तरह का आयोजन अब स्कूल और कॉलेजों से बिलकुल ही ख़्तम हो चुका है! वैसे स्कूल में ईद मिलाद उन नबी के जश्न के ऐहतेमाम से याद आया के हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी के अज़ीम रहनुमा शाह वजीहउद्दीन मिन्हाजी साहब अपनी डायरी ‘मेरी तमन्ना’ में लिखते हैं कि 1923 में उन्हे पढ़ने के लिए कलकत्ता के मिशनरी स्कूल में भेजा गया। वहां ईद मिलाद उन नबी का आयोजन नही करने दिया गया; तब उन्होने ज़बर्दस्ती जशन ए मीलाद उन नबी का आयोजन किया; क्युंके वो पहले जिस स्कूल से पढ़ कर आये थे; वहां हर साल जशन ए मीलाद उन नबी का ऐहतेमाम किया जाता था। वैसे फिर कलकत्ता के इस मिशनरी स्कूल से उन्हे जशन ए मीलाद उन नबी का आयोजन करने की वजह कर निकाल भी दिया गया था।

बहरहाल, धीरे धीरे ट्रेंड चेंज होते जा रहा है, पहले झंडा का रंग कुछ होता था, और अब कुछ और है। वैसे झंडा से याद आया के आज भी कई जगह हरे और लाल रंग के पताके लगे मिल जाएंगे, जिसपर चांद बना होता है; पर बहुत कम लोगों ने ग़ौर किया होगा के इस रंग का रीज़न क्या है? असल में ये उस्मानी सलतनत और ख़िलाफ़त का झंडा है। चुंके इस्लाम में ख़लीफ़ा का एक महत्व है, और 1857 में मुग़लों के ज़वाल के बाद भारतीय मुसलमान का रुझान भी उस्मानी सलतनत की तरफ़ बढ़ा और ये झंडा वहां से यहां भी आ गया। लाल वाला झंडा उस्मानी सलतनत का था तो हरा वाला झंडा उस्मानी ख़िलाफ़त का; वैसे उस्मानी सलतनत के ज़वाल के बाद आज भी तुर्की में ईद मिलाद उन नबी मनाने का अपना एक ख़ास अंदाज़ है। इस दिन ज़्यादातर मुसलमान मस्जिद में एक साथ जमा होते हैं। पूरे दिन नमाज़ और क़ुरान की तिलावत की जाती है। हर नमाज़ के बाद दर्स होता है। इसमें मर्द, औरत और बच्चे तमाम लोग शामिल होते हैं। बिलकुल ईद की तरह एक दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद देते हैं। औरतें लोगों को शरबत पिलाते व किताबें और कैलेंडर बांटती नज़र आती हैं। इबादत का ये सिलसिला पुरे दिन जारी रहता है। कई लोगों के हिसाब से ईद मिलाद उन नबी का जश्न मनाने का इससे बेहतर तरीक़ा कुछ और नहीं हो सकता है। बाक़ी इक़बाल के हिसाब से :-

की मुहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं,
ये जहां चीज़ है क्या, लौह ओ क़लम तेरे हैं!


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Md Umar Ashraf

Md. Umar Ashraf is a Delhi based Researcher, who after pursuing a B.Tech (Civil Engineering) started heritagetimes.in to explore, and bring to the world, the less known historical accounts. Mr. Ashraf has been associated with the museums at Red Fort & National Library as a researcher. With a keen interest in Bihar and Muslim politics, Mr. Ashraf has brought out legacies of people like Hakim Kabeeruddin (in whose honour the government recently issued a stamp). Presently, he is pursuing a Masters from AJK Mass Communication Research Centre, JMI & manages heritagetimes.in.