मार्टिन लूथर किंग की भारत यात्रा (फरवरी-मार्च 1959)


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Shubhneet Kaushik


मार्टिन लूथर किंग ने 1958 में अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत के प्रति अपने लगाव और जुड़ाव की चर्चा करते हुए एक लेख लिखा था: “माय पिलग्रिमेज टू नॉन-वायलेंस”। जाहिर है कि सत्याग्रह और अहिंसा के अनुयायी मार्टिन लूथर किंग लंबे समय से महात्मा गांधी के देश भारत की यात्रा करना चाहते थे। 1956 में जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अमेरिका गए तो उन्होंने किंग को भारत आने का आमंत्रण भी दिया। पर अपनी तमाम व्यस्तताओं और प्रतिबद्धताओं के चलते अगले तीन वर्षों तक किंग का भारत जाना संभव न हो सका।

जनवरी 1959 में, गांधी स्मारक निधि के सदस्य जी. रामचंद्रन ने मार्टिन लूथर किंग को भारत आने का बुलावा दिया। रामचंद्रन ने मोंटगोमरी के आंदोलन से अपनी पूरी सहानुभूति जताई और अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते पर चलने के लिए अश्वेत समुदाय की सराहना की। और मार्टिन लूथर किंग को भारत आकर महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रयोगों के बारे में और गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के बारे में भी अधिक गहराई से जानने का न्यौता दिया।
आखिरकार, फरवरी-मार्च 1959 में गांधी के देश को करीब से देखने-जानने का मार्टिन लूथर किंग का लंबा इंतज़ार खत्म हुआ। अपनी इस महीने भर लंबी यात्रा के बारे में किंग ने तुरंत एक लंबा आलेख लिखा, जिसका शीर्षक था: “माई ट्रिप टू द लैंड ऑफ गांधी”। यह आलेख ‘एबनी’ पत्रिका के जुलाई 1959 के अंक में छपा।

इस यात्रा में किंग के साथ उनकी पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग और उनके दोस्त डॉ. लारेंस रेडिक भी थे। डॉ. रेडिक ने तब तक मार्टिन लूथर किंग की एक जीवनी “क्रूसेडर विदाउट वायलेंस” भी लिख दी थी। किंग अपने साथियों के साथ, 3 फरवरी, 1959 को जहाज से भारत के लिए रवाना हुए। 10 फरवरी, 1959 को किंग बंबई पहुँचे। अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिले। साथ ही, वे सुचेता कृपलानी सरीखी सांसदों और विनोबा भावे आदि से भी मिले।

किंग हिंदुस्तान में जहाँ कहीं भी गए, लोगों ने उन्हें अपने भाई-बंधु के रूप में देखा। इस बंधुत्व का कारण था एशिया, अफ़्रीका और अमेरिका के उपनिवेशों के लोगों द्वारा नस्लवाद और साम्राज्यवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष की प्रबल भावना। इस एक महीने के दौरान किंग ने अनगिनत सार्वजनिक सभाओं और बैठकों में हिस्सा लिया, जहाँ वे नस्लवाद की समस्या पर और अमेरिका में अश्वेतों की स्थिति पर विस्तार से अपनी बात रखते। इन सभाओं में भारी संख्या में लोग मौजूद रहते और उनके विचारों को सुनते। इन सभाओं में किंग की पत्नी कोरेटा स्कॉट किंग भी मौजूद होतीं।

किंग ने मोंटगोमरी के आंदोलन की ख़बरों से भारतीयों को परिचित कराने के लिए भारतीय समाचारपत्रों की सराहना की। उन्होंने भारत के चारों प्रमुख महानगरों, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई और मद्रास की यात्राएं की। इसके अतिरिक्त किंग अपनी यात्रा के दौरान आगरा, पटना, गया, हज़ारीबाग, बोलपुर, बर्दवान, महाबलीपुरम, मदुरै स्थित गांधी ग्राम, त्रिवेन्द्रम, बंगलोर, अहमदाबाद और किशनगढ़ आदि जगहों पर भी गए।

किंग की भारत-यात्रा ने, शोषितों के स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए, सबसे कारगार औज़ार के रूप में अहिंसात्मक प्रतिरोध की पद्धति में उनके विश्वास को पहले से कहीं अधिक दृढ़ किया। किंग का यक़ीन था कि जहाँ एक ओर हिंसा के मार्ग की अनिवार्य परिणति घृणा, द्वेष और प्रतिशोध में ही होती है, वहीं अहिंसा प्रेम और करुणा पर आधारित समाज की बुनियाद रखती है। किंग ने यह विश्वास जताया कि अगर सकारात्मक गतिविधियों के साथ अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक पर अमल किया जाए, तो वह निश्चित रूप से सर्वसत्तावादी ताकतों के सामने भी सफल सिद्ध होगी।

अपनी भारत यात्रा के दौरान किंग भारत में पढ़ाई कर रहे अफ्रीकी छात्रों से भी मिले। इन छात्रों में कुछ ने किंग के सामने यह शंका जाहिर की कि अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक केवल उसी स्थिति में कारगर हो सकेगी, जब जिसके विरुद्ध प्रतिरोध किया जा रहा है, उसमें विवेक बचा हो। इन छात्रों का मानना था कि निष्क्रिय प्रतिरोध अंततः अप्रतिरोध ही है। किंग ने उन छात्रों को समझाया कि वे अहिंसात्मक प्रतिरोध की तकनीक को गलत ढंग से देख रहे हैं। किंग के अनुसार, सच्चा अहिंसात्मक प्रतिरोध कभी भी बुरी ताकत के सामने समर्पण करना नहीं है। असल में, अहिंसात्मक प्रतिरोध तो प्रेम के बल से बुरी ताकतों का एक साहसिक विरोध है। इसमें यह विश्वास निहित है कि हिंसा करने से कहीं बेहतर है हिंसा को झेलना और अहिंसात्मक प्रतिरोध करना।

किंग ने लिखा कि “मैं इस बात को समझता हूँ कि आख़िर क्यों शोषित वर्ग के लोग अपने स्वतंत्रता-संघर्ष में अक्सर हिंसा का रास्ता अख़्तियार करते हैं, पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि अगर मानव प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष में, जो अफ्रीका में अब अपने चरमोत्कर्ष पर है, गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के रास्ते को अपनाया गया तो इस संघर्ष का नतीजा पूरी दुनिया पर एक सकारात्मक प्रभाव डालेगा।”


भारत से रवाना होने के एक दिन पूर्व, 9 मार्च, 1959 को, मार्टिन लूथर किंग ने आल इंडिया रेडियो पर एक वक्तव्य में किंग ने दो बातें ज़ोर देकर कहीं। पहला, यह कि समय के साथ महात्मा गांधी के तरीकों में लोगों का विश्वास बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता ही जाएगा। दूसरा यह कि भारत को दुनिया भर में निःशस्त्रीकरण का अगुवा बनकर शांति का संदेश फैलाना चाहिए।

मार्टिन लूथर किंग की दृष्टि में भारत की समस्याएँ

गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और जाति-प्रथा को मार्टिन लूथर किंग ने भारत की प्रमुख समस्याओं के रूप में देखा। उन्होंने लिखा कि बंबई सरीखे शहर में पाँच लाख से अधिक लोग फुटपाथ पर सोने को अभिशप्त हैं, उनमें से अधिकांश बेरोजगार हैं, उनके पास न रहने के लिए घर है, न पहनने के लिए कपड़े और न खाने के लिए अन्न।

हिंदुस्तान में फैली हुई जाति-प्रथा की कुरीति, किंग के अनुसार एक और बड़ी समस्या थी, जिससे भारत जूझ रहा था। किंग ने जातिप्रथा की तुलना अमेरिका में व्याप्त नस्लवाद से की। किंग ने अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए भारतीय नेताओं और संविधान की सराहना की। जातिप्रथा के विरुद्ध गांधी के संघर्षों और अछूतोद्धार के लिए गांधी के प्रयासों को भी किंग ने सराहा और इन प्रयासों को अमेरिकी सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए एक उदाहरण के रूप में देखा।

मार्टिन लूथर किंग ने उस समय भारत में विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलाये जा रहे भूदान आंदोलन के उद्देश्यों को न सिर्फ सराहा, बल्कि उसे एक संभावना के रूप में देखा। जिसमें आम सहमति और सम्मति के आधार पर एक बड़े आर्थिक-सामाजिक बदलाव की कोशिश की जा रही थी।


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