ग़रीबों के मसीहा : पूर्व विधायक मरहूम अब्दुस्सलाम


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मुहम्मद सैफ़ुल्लाह

कॉमरेड अब्दुस्सलाम का जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में दरभंगा जिले के शकरपुर गांव में 25 मई 1929 को हुआ था। उनके पिता का नाम काज़िम हुसैन और माता का नाम हसन बीबी था। पिता तहसीलदार थे तथा बड़े रौबदार और प्रभावशाली इंसान थे। सलाम साहब अपने माता पिता के इकलौते संतान थे।

शुरुआती शिक्षा घर पर हासिल करने के बाद ‘जिला स्कूल’ दरभंगा में दाखिला लिया फिर बाद में ‘सफी मुस्लिम उच्च विद्यालय’ दरभंगा से हाई स्कूल 1945 में पास की। उच्च शिक्षा के लिए अपने भतीजे और सबसे जिगरी दोस्त डॉ इज़हरुल हसन साहब के साथ ढाका गये लेकिन राजनीति में दिलचस्पी लेने की वजह से पढ़ाई बीच मे ही छोड़ दिया जबकि उनके दोस्त डॉ साहब वहां से MBBS की डिग्री हासिल करके लौटे।

छात्र-जीवन से ही राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे।

भारत छोड़ो आंदोलन के समय सलाम साहब सफी मुस्लिम हाइ स्कूल में छात्र थे और उस छोटी सी उम्र में ही क्रांतिकारियों के लिए दीवारों पर पोस्टर चिपकाते और छुप छुपकर हैंड बिल वगैरह बांटा करते थे। अर्थात बड़ी छोटी उम्र से ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। शुरूआती दिनों में ही इनका संपर्क भोगेन्द्र झा, राजकुमार पूर्वे, तेज नारायण झा, श्रीमोहन झा, मोहम्मद एहसान गडहिया, राम अयोध्या भगत इत्यादि लोगों से हुई। और आज़ादी के बाद देश मे उत्पन्न परिस्थितियों से जूझने लगे, गरीबों-पिछड़ों के हक़ की लड़ाई को अपने राजनीतिक संघर्ष का आधार बनाया और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। 1952 के पंचायती चुनाव में टॉस के आधार पर मुखिया पद के लिये विजेता हुए और उसके बाद 2001 तक लगातार अपने क्षेत्र के लोगों की मुखिया के तौर पर सेवा करते रहे। 1980-85 तक पहली बार और 1995-2000 तक दूसरी बार विधायक रहे।

सिद्धान्तों से कभी समझौता नही किया।

सलाम साहब एक बेहद नेक दिल इंसान थे। 10 साल विधायक और बरसों तक उत्तर बिहार के एक जननेता रहने के बावजूद उन्होंने कोई निजी धन संचय नही किया। जब भी चुनाव लड़ते तो अपने कुछ पुश्तैनी जायदाद को बेचकर और कुछ चंदा वगैरह इकट्ठा कर मैदान में होते थे । एक बेहद सादा जीवन जीने वाले सलाम साहेब कभी कभी अपनी विरोधियों के खिलाफ न कुछ बोलते थे और न ही उनमे कभी कोई बदले की भावना होती थी।

1995 में सलाम साहेब दूसरी बार विधायक बने थे। इस समय बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग से लालू यादव मुख्यमंत्री बने थे तभी 1996 में चारा घोटाला प्रकाश में आने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार अल्पमत में आ गयी। राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी लालू यादव ने अपने घोड़े दौराने शुरू किये और जल्द ही कम्युनिस्ट पार्टी के यादव सहित कई विधायकों को अपने पाले में कर लिया। इस समय पार्टी को जो क्षति हुई उससे कम्युनिस्ट पार्टी फिर बिहार में दुबारा नही उठ सकी। एमवाई समीकरण पर बनी लालू सरकार ने इस कम्युनिस्ट मुस्लिम विधायक को भी अपने पाले में करने के लिये हर पैंतरा अपनाया। मंत्री पद से लेकर रुपये पैसे और हर तरह के लालच दिए गए लेकिन सलाम साहेब अपने गरीब-मजदूरों के संघर्ष के साथ खड़े रहे और दल बदलने से इनकार कर दिया।

आजीवन गरीब पिछड़ों की लड़ाई लड़ते रहे

सलाम साहेब 1975 से 2009 तक लगातार कम्युनिस्ट पार्टी के दरभंगा ज़िला सेक्रेटरी बने रहे और जमीन से जुड़कर अपने क्षेत्र के लोगों के लिए संघर्ष करते रहे । बिहार के गिने चुने कद्दावर नेता में से थे लेकिन फिर भी कभी इन्होंने पार्टी के अंदर या बाहर बड़े पदों के इच्छुक नही रहे । हमेशा वो सिर्फ हक़ के लिये संघर्ष करना जानते थे और पूरी जिंदगी इसी में लगा दी । अपने विधायकी के कार्यकाल में उनका मुख्य ध्यान समाज मे शांति और भाईचारा बनाये रखने पर होता था यही वजह थी बहुत सी नापाक कोशिशों के बाद भी उन्होंने जबरदस्त कौशल के साथ शांति प्रयास किये। उनके विधानसभा क्षेत्र में स्थित राजो नामक जगह पर भड़के दंगे को शांत कराने के लिये उन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह किये बगैर जिस बहादुरी का काम किया वो मिसाल है। सेकुलरिज्म के वो सच्चे संरक्षक थे। उनके कार्यकाल में ही जाले में कृषि अनुसंधान केंद्र स्थापित हुआ, जाले-अतरबेल सड़क का कायाकल्प हो सका। इसके अलावा बहुत से विकासात्मक कार्यों में उनका अहम योगदान था जिसमे बंधौली-कमतौल पथ पर लगनुवा पूल का चर्चा महत्त्वपूर्ण है। इस पूल निर्माण के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। विधानसभा में दर्जनों बार प्रश्न करने के बावजूद काम न होने पर वो भूख हड़ताल पर बैठ गये लेकिन इस इलाके के लोगों की परेशानी को दूर करके ही दम लिया।

उनकी छवि किसी पार्टी या किसी जात धर्म के नेता से ऊपर उठकर थी। आज भी परिचर्चाओं में उनकी पार्टी के विचारधारा के धुर विरोधी भी सलाम साहेब की तारीफ करने में संकोच नही किया करते है। और शायद इसलिए सलाम साहेब एक जननेता थे। वर्तमान में उनके मंझोले बेटे श्री अहमद अली तमन्ने अपने पिता के सिद्धान्तों और शिक्षाओं पर चलकर लोगों की सेवा कर रहे हैं।

16 जनवरी 2010 को लंबी बीमारी के बाद सलाम साहेब का इंतक़ाल हो गया। उनके शव यात्रा में बहुत बड़ी तादाद में हर जात धर्म के लोग मौजूद थे और उन्हें नम आंखों से विदाई दे रहे थे।

 

 


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