भारत का वो अज़ीम मौलाना जिसकी आवाज़ मग़रिब से लेकर मशरिक़ तक ने सुनी!


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हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर बड़े बड़े उल्मा पैदा हुए, लेकिन उनका नाम दीनदारों के तबक़े तक महदूद रहा, बड़े बड़े शेख़ पैदा हुए लेकिन उनका नाम अपने मुरीदों तक महदूद रहा, बड़े बड़े रेफ़ोर्मेर्स पैदा हुए लेकिन उनकी शोहरत अंग्रेज़ी जानने वालों तक रही, बड़े बड़े ख़तीब पैदा हुए लेकिन उनकी आवाज़ कांफ़्रेंस के प्लैटफ़ार्म और डाइस से बाहर न जा सकी।

इस सरज़मीं पर एक ऐसी हस्ती भी थी जिसकी आवाज़ मग़रिब ने भी सुनी, मशरिक़ ने भी सुनी, हिमालया की बुलंदियों ने भी और गंगा की लहरों ने भी सुनी, पढ़े लिखों ने सुनी तो अनपढ़ ने भी सुनी, सरदारों ने सुनी तो क़ौम के ख़ाक़सारों ने भी सुनी, वायसराय की चमकती बिल्डिंग ने सुनी तो गरीब की झोंपड़ी में भी उसकी आवाज़ सुनी गयी।

उसकी आवाज़ ड्राइंग रूम के सोफ़े पर भी थी, मस्जिद के मिम्बर पर भी थी, कांग्रेस के प्लैटफ़ार्म पर भी थी तो मुस्लिम लीग की मजलिस में भी थी, देवबंद, नदवा, फ़िरंगीमहल, अलीगढ़, जामिया में उसकी आवाज़ गुंज रही थी, हर कोई उसकी आवाज़ से लुत्फ़ उठाता रहा था।

जलने वाले भी बहुत थे, लेकिन कभी उसने किसी की परवाह नही की, उसका दिल नेपोलियन का दिल था, क़लम मैकाले का था, अदब सियासत खुतबात सहाफत कयादत हर जगह उसने अपने गहरे छाप छोड़े, उसका नाम मोहम्मद अली जौहर था।

मुहम्मद अली जौहर की पैदाइश 1878 में हुई थी। उनका ख़ानदान बिजनौर का था लेकिन ग़दर के बाद मुरादाबाद आ बसे थे। जब दो साल के थे वालिद साहब का इंतकाल हो गया; बचपन मे ही यतीमी के दर्द को बर्दाश्त करना पड़ा।

बी अम्मा ने जिस हिम्मत और हौसले के साथ अपने बच्चे की परवरिश की वो अपने आप में एक मिसाल है उस दौर मे बी अम्मा ने अपने बच्चे को अंग्रेज़ी तालीम से आशना कराया।

मौलाना अली की पढ़ाई की शुरुआत घर से हुई घर पर अरबी फ़ारसी पढ़ने के बाद, बरेली के हाई स्कूल मे दाख़िल करा दिये गये … उस वक्त बरेली के हाई स्कूल मे मौलाना शौकत अली (बड़े भाई ) भी तालीम हासिल कर रहे थे, बरेली स्कूल मे पढ़ने के बाद मौलाना का दाख़िला अलीगढ़ मे मौलाना शौकत अली की निगरानी मे हो गया।

मौलाना ज़हीन थे लेकिन पढाई से दूर भागते थे, क्रिकेट के मैदान, सैर तफ़रीह में अक्सर मिल जाते, हाज़िर जवाब थे और झगड़ालू भी, तक़रीर का शौक़ था, मौलाना ने 1896 में बी.ए. का एग्ज़ाम दिया और यूनिवर्सिटी में टॉप कर गये जो लोगों के लिए हैरानी की बात थी।

अलीगढ़ के बाद मौलाना इंग्लैंड चले गए, इंग्लैंड में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के लिंकन कॉलेज में एडमिशन हुआ, लेकिन पढ़ने से हमेशा भागते थे इसलिए ICS में नाकामयाब हो गये, जब बड़े भाई शौकत अली को भाई की नाकामी की ख़बर पहुंची तो चेहरा पीला हो गया, बी अम्मा ने उनका हौसल बढ़ाया और मोहम्मद अली को वापस बुलाने के लिए कहा।

सिविल सर्विस के इम्तहान में नाकामी के बाद मौलाना वापस आ गये और रामपुर में इनकी शादी हो गयी, मौलाना शौकत अली ने एक बार फिर हिम्मत करके इन्हें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी भेजा जहाँ से मोहम्मद अली ने हिस्ट्री में ऑनर्स किया … वहां से वापस आकर कुछ दिन तक रामपुर हाई स्कूल में प्रिंसिपल के ओहदे पर क़ायम रहे, उनके खिलाफ़ साजिशों का दौर जारी रहा जिससे मौलाना ने खुद प्रिंसिपल का ओहदा छोड़ दिया … फिर रियासत बरौदड़ा में महकमा अफ़ीम में मुलाज़मत की लेकिन मोहम्मद अली मुलाज़मत करने के लिए पैदा नही हुए थे।

बहुत मेहनत और कोशिश के बाद मौलना मोहम्मद अली ने 1911 में कोलकाता से कामरेड नाम का अख़बार निकाला … कामरेड लोगों के दिलो दिमाग़ पर छाता गया … कामरेड के पढ़ने वालों में सबसे बड़ी तादाद अंग्रेज़ों की थी, उसी वक़्त हिंदुस्तान की राजधानी को अंग्रेज़ों ने कोलकाता से देल्ही शिफ़्ट कर दिया, मौलना ने भी अपने अख़बार को देल्ही शिफ़्ट कर दिया और देल्ही में हमदर्द नाम से अख़बार निकाला।

मोहमडन ओरिएण्टल कॉलेज को अलीगढ यूनिवर्सिटी में तब्दील करने के लिए मौलाना ने दिन रात एक कर दिया वहीं जामिया मिल्लिया इस्लामिया तो मौलना की सोच ही थी, मौलाना अली जौहर मुस्लिम लीग के फाउंडर मेम्बर में से थे, और 1906 से ही लीग से जुड़े रहे लेकिन खिलाफ़त मूवमेंट को कांग्रेस ने सपोर्ट किया इस बुनियाद पर वो कांग्रेस में आ गये, और असहयोग आंदोलन में कांग्रेस की मदद की लेकिन गाँधी की खद्दर में जब हिन्दू महासभा के लोग घुसने लगे तो मौलना ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और वापस अपना अख़बार हमदर्द निकालने लगे, मौलाना के कांग्रेस छोड़ने की सबसे बड़ी वजह मोती लाल नेहरु की नेहरु रिपोर्ट थी, मोतीलाल ने 1916 के लखनऊ पैक्ट को भुला दिया था।

1930 में पहली राऊंड टेबल मीटिंग हुई थी, जिसमे मौलाना मुहम्मद अली हिस्सा लेने गए और वहां साफ़ अंदाज़ में ये ऐलान कर दिया के मै मुल्क की आज़ादी का परवाना यहाँ से लेकर जाना चाहता हूँ, अगर ब्रिटश हुकूमत ये नही कर सकती तो मै एक ग़ुलाम मुल्क में मरना पसंद नही करूँगा …. ये इत्तेफ़ाक था या कुछ और मौलाना का उसी रात इंतेक़ाल हो गया, मौलाना की आख़री आरामगाह क़िबला ए अव्वल बैतूल मकदस फ़लस्तीन में है …।

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मौलाना को दुनिया में जो परवाज़ मिली उसे दुनिया ने देखा … लेकिन जो रूह को परवाज़ मिली उसका अंदाज़ा कौन करे ?

मौलाना को 1921 में दो साल की सज़ा भी सुनाई गयी थी, इसके इलावा कई बार अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ लिखने पर नज़रबंद कर दिया गया, मोहम्मद अली जिन्ना कभी वकील बन कर जाते के अंग्रेज़ों को ये यक़ीन दिला दो के तुम आगे से हुकूमत के खिलाफ़ नहीं लिखोगे ? लेकिन मोहम्मद अली जहाँ जमे थे वहीं जमे रह जाते…

फ़लस्तीन के मुफ़्ती अमिन अल हुस्सैनी साहब कहते हैं के एक रात ख़ाना ए काबा के पास से गुज़र हुआ तो देखता हूँ एक आदमी सजदे में हैं और दुआ कर रहा है के अल्लाह मेरी किसी ख़्वाहिश को क़बूल न करना सिर्फ़ एक बार खिलाफ़त राशदा का मंज़र दिखा दे और हिंदुस्तान को ग़ैरों के पंजे से आज़ाद करा दे … अमीन। अल हुस्सैनी कहते हैं जब वो आदमी सर उठाता है तो मै देखता हूँ ये मुहम्मद अली जौहर है।

फ़रवरी 1929 का दौर था, मौलाना मोहम्मद अली जौहर कांग्रेस से दूर हो चुके थे, बीमार भी थे … बंबई के अस्पताल मे एडमिट थे, डायबटिज अपने उरुज (हाई लेवल) पर था … डॉक्टर ने बेड से उतरने को मना कर रखा था तभी बंबई मे फ़साद बरपा हो गया …. मौलाना जिस अस्पताल मे थे वहाँ फ़साद के मारे पहुंचने लगे… किसी का हाथ टुटा, किसी का पैर झुलता हुआ … अस्पताल मे हंगामा मचा हुआ था …. मौलाना ये सब देखकर बेड से उतरे ….. मुम्बई के कमाटीपुरा इलाक़े मे गए …. वहाँ के मुसलमानों को ख़ुदा और रसूल का वास्ता देकर दंगे से दूर किया … मौलाना अपनी बीमारी छोड़ बंबई की गलियों मे लोगों की जान बचाने, फ़सादी को समझाने के लिए फिर रहे थे ….।

ख़ैर हमलोग समझने वाले कहाँ थे ?… हम तो दंगे पर दंगे करते रहे इसलिए अब दंगे रोकने वाले सियासतदां नही होते, अब भड़काने वाले होते हैं।


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