नामवर सिंह: कितना सच, कितना झूठ


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Jayant Jigyasu

ओजस्वी आलोचक नामवर सिंह जी को रुबरू बस एक बार सुना था डीयु में रामविलास शर्मा की जन्मशती पर। उनके कहने का अपना अंदाज़ था और सुनते हुए ऐसा लगता था कि वो कह रहे हों कि ये मेरी मान्यता है, चाहो तो चुनौती देकर दिखाओ। वो मंच पर होते थे तो मालूम पड़ता था कि साहित्य जगत का कोई हुक्मरां कोई नया विधान प्रस्तुत कर रहा हो। जाहिर-सी बात है कि उन्होंने कई प्रतिमान ध्वस्त किए और कई गढ़े। एक लेखक और शिक्षक के रूप में वो अद्भुत थे। और उनके जैसे शिक्षक व शायद उनके शिष्यों के लिए ही कहा जाता है, “श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम”।

रामविलास जी पर बोलते हुए उनके पुत्र की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि शर्मा जी जिद्दी स्वभाव के थे। उनसे कोई काम कराना हो तो उन्हें उकसा दो और फिर वो तन्मयता से लग जाते थे बिना इस बात की फिक्र किए हुए कि जिस काम में उन्होंने हाथ लगाया है, उसकी उपयोगिता आने वाले समय में कितनी होगी, होगी भी कि नहीं होगी। और इस सिलसिले में उन्होंने बहुत मूल्यवान समय ज़ाया किया। वक़्त बहुत सीमित है और अच्छी सामग्री की भारमार है। छोटी-छोटी चीज़ों को पहले निबटाने और अच्छी चीज़ों को बाद में चाव से, इत्मीनान से देखने की आदत खतरनाक है। पहले श्रेष्ठ पढ़ा जाए, बड़े काम में हाथ लगाया जाए। मसलन, किसी को आलोचना के क्षेत्र में हाथ आजमाना हो तो तुलसी के मानस से शुरू करे। मैंने रामविलास जी से कहा कि गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, हनुमानबाहुक से शुरू करेंगे, तो मानस तक पहुंचते-पहुंचते तो अलविदा कहने का समय आ जाएगा। इसलिए, तलछट को आख़िरी बेला में फ़ुर्सत से देखा जाना चाहिए। पहले ज़रूरी और अहम किताबें, अहम काम पहले। न दुनिया भागी जा रही, न ये बिखरी किताबें, न हम। बस प्राइराटाइज़ करने का समय है। वक़्त बह रहा है। न आइंदा, न गुज़िश्ता, बस इमरोज़ है अपने अख़्तियार में।

पर, इन सबसे इतर एक शिक्षाविद का मूल्यांकन इस आलोक में भी किया जाता है कि उनके व्याख्यान का समाज पर कितना असर पड़ा है। यह अनायास भी नहीं है कि नामवर सिंह जैसे नामवर आलोचक मंडलवादी राजनीति के आयाम पर अपने मुखकमल से यह कह उठे थे कि अब तो उच्च जाति के लोग, उनके बाल-बच्चे कटोरे लेकर भीख ही मांगेंगे। अब भावुक व आह्लादित वामपंथी साथी दहड़िया मार के लोर टपकाते रहें। प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य-पदाधिकारी हो जाने मात्र से किसी को आप प्रगतिशील मान बैठते हैं, तो इसमें नामवर प्रजाति का क्या दोष है! वो तो वृद्धावस्था में संस्कृति मंत्री द्वारा ख़ुद को बैल कहलवाकर भी गौरवान्वित महसूस करती है। जन संस्कृति मंच पर छड़प के विराजमान हो जाने से कोई दीनदयाल को न भज उठे, इसकी कहीं कोई गारंटी है क्या! जनवादी लेखक संघ ज्वाइन कर लेने से कोई जनवादी हो जाता है क्या! आप बस ऐसे ही दो-चार मंतर उनके मुखारविंद से सुनकर हुलसते रहिए, उनके गुणगान में जीवन खपा दीजिए ताकि आपको भी नामवरों की प्रगतिशील पंक्ति में गिना जा सके।

मंडलवादी सियासत के दौर में नामवर जी की की यह टिप्पणी “अब ठाकुरों-बाभनों के बच्चे कटोरा लेके भीख मांगेंगे” उनके मानस का सूचकांक है। पर मैं उन्हें इस बात के लिए कठघरे में खड़ा नहीं करूंगा, क्योंकि एक नामवर ही नहीं, हज़ारों ब्राह्मणवादी ‘प्रगतिशील’ लेखक-विचारक-चिंतक मिल जाएंगे जो इस मुद्दे पर बिल्कुल उन्हीं की तरह सोचते हैं। यह नामवर की ईमानदारी थी कि उन्होंने अपने मन की बात सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दी।

बहुत पहले यह टिप्पणी लिखी थी, जो कई मित्रों को अरुचिकर लग सकती है। वो कहेंगे कि ऐसी बातों का यह मौक़ा नहीं है, और मैं कहूं कि मैं मौक़ापरस्त आदमी नहीं हूं। बड़े-बड़े लेखक-विचारक कमरे के बाहर साम्यवाद और कमरे के अंदर जातिवाद का क्या गुल खिलाते हैं, उसका कोई भी ज़िम्मा नहीं ले सकता। उनको गोल-गोल बोलकर अपूर्व आनंद से भरने दीजिए, सबके दिन लदेंगे और कुंडली मार के बैठे ज्ञान के कारोबारियों की महीन धूर्तई खुलकर सामने आएगी।

“मूरख, नामवर कोई व्यक्ति नहीं, विचार नहीं, पूरा का पूरा वाद है। साहित्य के इस अनोखे वाद के आगे प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, सब पानी भरता है। छायावाद भी तो भरी दुपहरिया में छाँव तलाशने, दो घड़ी सुस्ताने यहीँ पहुँचता है न जी… हालावाद डगमगाते क़दमों, लड़खड़ाते हौसलों के साथ नतमस्तक होने इसी आश्रम में तशरीफ़ लाता है। जो-जो रिसर्च स्कॉलर इस अद्भुत नामवरवाद की शरण में साष्टांग करने आया, सब तर गया, और जिस-जिस शोधार्थी ने इस विचित्र वाद को हल्के में लिया, खिल्ली उड़ायी, शीश नवाने से इंकार किया, विद्रोही बनने का दुस्साहस किया, सब का सब शोधा गया। और, अब तो ये नामवरवाद सार्वभौमिक स्वरूप व तेवर अख़्तियार करता जा रहा है। बाप रे बाप, चहुंओर त्राहिमाम ! अस्तु, It is a truth universally acknowledged, that a scholar of Hindi literature in possession of a Ph.D. degree or NET certificate must be in want of a Namvar Singh. (Inspired from Pride and Prejudice, by Jane Austen)”

एक बार अच्छे मूड में विद्रोही जी ने मुझसे छोटी-सी बातचीत में कहा था, “हिन्दी साहित्य जगत में जो शोषण नामवर सिंह ने किया, वैसा किसी ने किसी भाषा साहित्य में नहीं किया। इस मामले में मैनेजर पाण्डेय तो उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। और, सच तो ये है कि पांडेय जी विद्रोही परम्परा के शिक्षक हैं”। और, 2015 में विद्रोही जी के निधन पर शोक जताते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने कहा, “विद्रोही व्यक्तिगत रूप से मेरे छात्र थे, इसलिए भी मैं उनको जानता हूँ। आज मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि रमाशंकर विद्रोही मेरे इकलौते छात्र भी होते, तो इससे बड़ी उपलब्धि मेरे लिए कोई दूसरी नहीं हो सकती।” निधन से कुछ महीने पहले एक अनौपचारिक बातचीत में मैनेजर पांडेय जी से विद्रोही जी शिष्य की हैसियत से शिकायत कर रहे थे, “सर, कुछ लोग मेरी आलोचना कर रहे हैं।” मैनेजर जी विद्रोही जी के कंधे पर हाथ रखते हैं, और कहते हैं, “विद्रोही, तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा…(हालाँकि उन्होंने ‘बिगाड़’ की ज़गह बिहार-यूपी में प्रचलित एक समानार्थी देशज शब्द का इस्तेमाल किया था)।”

कबिरा तुम पैदा हुए, जग हसा तुम रोये
ऐसी करनी कर चलो, तुम हसो जग रोये।

पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित करते हुए मैनेजर पांडेय की आँखें छलछला रही थीं। काश कि 80 के दशक में प्रतिकूल परिस्थिति में पांडेय जी मज़बूती से विद्रोही के पक्ष में स्टैंड ले पाते ! रही विद्रोही की कविताओं की समीक्षा की बात, तो कौन नहीं जानता कि विद्रोही किसी नामवर सरीखे आलोचक का मोहताज नहीं हुआ करता।

नामवर जी भारतीय पारिवारिक परंपरा व सांस्कृतिक मूल्यों के शालीन निर्वाहक बताए जाते रहे हैं गोया सिद्धांत और विचार के साम्य से उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही न रहा हो। नामवर सिंह जी राजनाथ सिंह जी के साथ जब अद्भुत राजपुताना तादात्म्य संबंध महसूस करते हैं, और जन्मदिन के सियासी मंच पर ख़ुद को संस्कृति मंत्री महेश शर्मा द्वारा बैल (वृषभ की भांति बुज़ुर्ग और कद्र के क़ाबिल) तक कहलवा आते हैं, तो हिन्दी आलोचना का क्षेत्र और भी विस्तार पाता है। नैतिक संकट और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से कुशाग्र बुद्धि वाले बुद्धिजीवी दो-चार नहीं होते।

नामवर जी के मित्र राजेन्द्र यादव की शख़्सियत की एक बड़ी ख़ासियत रही, अभिव्यक्ति के स्तर पर ईमानदारी और दूसरी बड़ी ख़ूबी, असहमति का सम्मान। कुछ ढकना है न कुछ छुपाना, न कोई हिपोक्रसी ज़िंदगी में। जो है, सामने है। यही राजेंद्र यादव होना है। इन दिनों उनकी एक बात बहुत याद आती है – “बहुसंख्यकों का धार्मिक उभार राष्ट्रीयता है और अल्पसंख्यकों का राष्ट्रद्रोह – यह तर्क है या धौंस?” इरफ़ान साहब ने उनसे गुफ़्तगू करते हुए आख़ि़र में जब पूछा, “ये जो जीवन की धारा जहाँ पर इस वक़्त ले आई आपको, कैसा लगता है कि ज़िंदगी से क्या हासिल हुआ”?, तो राजेंद्र यादव ने धर्मवीर भारती जी की लाइन दुहरा दी, “ये गलियाँ थीं जिनसे होकर मैं गुज़र गया”।

एक बार हिन्दी भवन में एक नवोदित हिन्दी कवयित्री के पुस्तक-विमोचन समारोह में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में यशस्वी कथाकार व हंस के चिर-चर्चित सम्पादक राजेन्द्र यादव ने कहा, “दरअसल इस तरह के कार्यक्रम के अध्यक्ष होने के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी. फायदा ये है कि कोई चाहे तो पूर्व के वक्ताओं द्वारा कही गयी बातों में से ही सामग्री उठाकर अपनी बात बेहतर तरीक़े से कह सकता है; जैसा कि लब्धप्रतिष्ठ आलोचक आदरणीय नामवर सिंह जी करते रहे हैं। और, नुकसान ये है कि जबतक अध्यक्ष के बोलने की बारी आती है, आधे से अधिक श्रोता उठकर जा चुके होते हैं।” उनका इतना कहना था कि हॉल ठहाकों से गूँज उठा। ओह, कितने करीने व सलीक़े से वो नामवर सिंह को अक्सर लपेट लिया करते थे। राजेंद्र यादव के इस हास्य-बोध व उनके विटी रिमार्क्स और नामवर सिंह की अड़ने वाली प्रवृत्ति व वाद-विवाद-संवाद की प्रकृति को अब साहित्यिक गोष्ठियों में बेहद मिस किया जाएगा।

लेखक जेएनयू के शोधार्थी हैं।


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